Friday, October 7, 2016

इस ख़ामोशी की वजह
मैं जान कर न जान पाती हूँ..
जब जलते हुए मकानमें
कुछ परिंदे झुलस रहे हैं
जब साफ़ सुनाई पड़ रही
बच्चों की चीख पुकार
जब सिर्फ धुआं धुआं
रोया रोया आसमान
कोसो दूर से, बम की आवाज़ नगाड़े सी आती है...
और  पेलेट गोलियों की शहनाइसी शायद ..
लोगों के अंतिम हुंकार
विजय स्तोत्र  बन जाते  हैं..
और हम ख़ामोशी में
युद्ध गीत गाते हैं..
ऐ दोस्त...सरहद पर मिलते हैं आज...



Tuesday, August 30, 2016

तेरी मेरी बातें  अब कहीं नहीं
 अब सिर्फ समाज है
तेरे मेरे बीच  और हर तरफ
और हर तरफ छाया है अबूझ सन्नाटा
इतने शोरगुल के बावजूद
जो तना रहता है
जैसे कोई तम्बू शहर में
बीचोबीच
और हम सिर्फ दर्शक, तुम और मैं
इस आपातकाल की घडी में
जब मन करता है के भींच लूँ तुम्हे बाँहों में
तब तुम हाथ नहीं आते
सटे हुए होते हो मुझसे
पर साथ नहीं आते
गहरा काला  समाज
छाया रहता है मेरे और तुम्हारे मन पर
और कविताये निराशावादी

चलो कहीं चल दे..
इस समाज के लिए ही,
 इस समाज से दूर..
जहाँ मेरी तुम्हारी बातें  होंगी...
और गीत होंगे
और शायद सावन भी....
और पथरीले समाज की आँखे पथरीली
करती हुई हमारा पीछा
क्या ढूंढ लेंगी हमे

... फिर वही सब  करेंगे
जो करते आये हैं सदियोंसे
साँसे रोक लेंगे
प्रदूषित हवासे
न छुएंगे फूलोंकी क्यारियाँ
जो हमारी नहीं
  ऐ  मेरे दोस्त। ..
हो सके तो गाएंगे फिर वही इन्किलाबी गीत
तेरी मेरी बाते
कभी और कर लेंगे

किसी के होंठो  पर
किसी के हाथों में
कहानी का रास्ता बड़ा बीहड़
राह  चलते टकरा गया कोई
सांस  वही अटकी हुई
कभी किसी की आँखे गीली
कभी मेरी आंते नम
अंदर तक गहराई ख़ामोशी
ऊपर सिर्फ चंद  लहरे
और धुंआ धुंआ बदन
कभी चन्दन  कभी सरगम
अब किस का इंतज़ार है
सब तरफ बर्फ बर्फ
नीली पिली सरगोशी
और। ...
ये शब्द मेरे नहीं
मेरे बस में नहीं