Wednesday, August 13, 2014

मेरी आँखे खुली है
और नज़र साफ़
पर सबकुछ धुंधला दीखता है
रास्ते दूर तक फैले हुए
मंज़िल का एहसास भी है
पर धुंध बढाती जा रही
और अचानक ये महसूस होता है
ये धुंध नहीं है
भीड़ है
भयानक भीड़, बच्चोंकी
जो आ रहे हैं मेरी तरफ
कमर झुकाये, ग़र्दन टेढ़ी
खानेपीने का पता नहीं
पतली सींख से उनके शरीर
ये हे भविष्य
मेरा, हम सब का!
मेरी आँखे, अब भी खुली हुई
पर धुंध से थोड़ी गीली
ये आंसू पोछने के लिए
किससे कहूँ
हमारा भविष्य तो मुरझायासा
हमारी तरफ बढ़ रहा है!