कवितायें झूट नहीं बोलती
अक्सर झूट छुपा लेती हैं बस
अपने दिल में दबोच लेती हैं
सारे वादे सारे शिकवे
और फिर झटक कर ख़ुद को
छातीयों को ढक लेती हैं
जैसे कविता नहीं दुपट्टा हो
और ओढ़ उसे
लहराता रहता है मन
सच झूट के बीच में
या फिर
शरीर को ढँक लेती हैं
जैसे कविता नहीं कफ़न हो
और फिर
कुछ नहीं बचता ...
-रसिका