डर नहीं पर अँधेरा सा आता दिखता है,
और सहमीसी आँखे मेरे बच्चे की,
ये कौन से समय में जी रहे हैं हम,
जहाँ दस्तरख्वान सजा है कोक और बर्गरोंसे
पर आती रहती है उनमें से खुशबु,
सिर्फ बारूदों की और खून की
गहनो से लदे पड़े है हम,
पर उन पर भी जमीं है जैसे काई,
या राख काली काली
उड़कर जो आता है इराक, अफगानिस्तान पाकिस्तान से भी.
जिस जमीं पर कभी खेल है घर घर!
वो कभी हरी तो कभी गेरुआ बन जाती है,
बच्चों की किलकारियां भी
हवस की शिकार होती है,
लहू का आखरी बूँद
शरीर में बन जाता है पारा
और हाथ में आने से पहले ही
अपनी पहचान खो जाती है.
डर नहीं है फिर भी...
बास अँधेरा सा दिखता है
...मेरे बच्चे की आँखे सहमी सी है
© RASIKA AGASHE
और सहमीसी आँखे मेरे बच्चे की,
ये कौन से समय में जी रहे हैं हम,
जहाँ दस्तरख्वान सजा है कोक और बर्गरोंसे
पर आती रहती है उनमें से खुशबु,
सिर्फ बारूदों की और खून की
गहनो से लदे पड़े है हम,
पर उन पर भी जमीं है जैसे काई,
या राख काली काली
उड़कर जो आता है इराक, अफगानिस्तान पाकिस्तान से भी.
जिस जमीं पर कभी खेल है घर घर!
वो कभी हरी तो कभी गेरुआ बन जाती है,
बच्चों की किलकारियां भी
हवस की शिकार होती है,
लहू का आखरी बूँद
शरीर में बन जाता है पारा
और हाथ में आने से पहले ही
अपनी पहचान खो जाती है.
डर नहीं है फिर भी...
बास अँधेरा सा दिखता है
...मेरे बच्चे की आँखे सहमी सी है
© RASIKA AGASHE