Thursday, October 4, 2018

मैं और महानगर

ये सुनसान गलियों से गुज़रते घर
ख़ामोश बल्ब की चरमराहट
टी वी के ठहाके 
मायूस सी अहाते से टीकी खाट
जिसपर सोते हुए 
अपनी ही हड्डियों की आवाज़ 
ट्राफिक से होकर आती है 
ये महानगर है 
यहाँ भीतर का कोई
जैसे कोंक्रिट में चुनवाया सा होता है
और साँसे गरम धुएँ सी
बेतहाशा भागती ये दुनिया
अकेला नहीं होने देती
ऐसा ख़्वाब आता है..
अब मुझ में और इस महानगर में
बस दो उँगलियों का फ़ासला है
बस कोई इंसान छू न जाये