Monday, December 3, 2018

गाय हमारी माता है!

गाय हमारी माता है
और हमको कुछ नहीं आता है

अरे बाल गीत था ये!
गाय को माता मान
इंसानो की हत्या कर ही सकते हैं
तो सच में हमको कुछ नहीं आता है!

अब तो गीत लिखने का मन नहीं होता
उपन्यास लिखने का भी नहीं
महाकाव्य तो क़तई नहीं
मिथकों के नायक को भगवान मान
हम सामने दिखते हुए 
असली, माँस हड्डी के इंसान को जला सकते हैं
अगर एक समूह के तौर पर 
हमारे सिर पे ख़ून सवार होता है
तो सच में हमको कुछ नहीं आता है

इतने साल के लोकतंत्र में
क्यूँ समझ नहीं पाते के 
के धार्मिक उन्माद करवाया जा सकता है
के यहाँ नफ़रत बोयी जा सकती है
के यहाँ सोशल मीडिया ही नहीं
सब चीज़ों का अलगोरिदम तय किया जा सकता है!
के मेरे शब्द आप तक पोहोंचे ही नहीं 
पर आपकी नफ़रत वहाँ तक ज़रूर पोहोंचे
जहाँ वो करेगी सटीक चोट 
के यहाँ क्रिया से पहले प्रतिक्रिया हो ही सकती है!
क्यूँ अभी तक समझ नहीं पाते 
के यहाँ जाती धर्म से वोट बैंक का नाता है,
और हम को कुछ नहीं आता है

ये समय अँधियारे का है
मुश्किल है , पथरीला है, डरावना है 
हाँ उन्ही पत्थरोंकि बात कर रही हूँ
जिनसे पहलू खान को मारा गया था
उसी डर की बात कर रही हूँ 
जो ,अपने जैसे दिखने वाले इंसान समूह में आकर
पूरी कि पुरी गाड़ी जला सकते हैं
जिसमें सुबोध बैठ था 
तब लगता ही होगा!
हाँ ये समय हमारे डरने का है
और इसीलिए बात करने का है
यही वक़्त है ये बताने का
के हम मूर्खता में शामिल नहीं होंगे

क्यूँ के जो हमने बोया है
वही भविष्य में लौटकर आता है
क्या हम को
सच में कुछ नहीं आता है??












Thursday, October 4, 2018

मैं और महानगर

ये सुनसान गलियों से गुज़रते घर
ख़ामोश बल्ब की चरमराहट
टी वी के ठहाके 
मायूस सी अहाते से टीकी खाट
जिसपर सोते हुए 
अपनी ही हड्डियों की आवाज़ 
ट्राफिक से होकर आती है 
ये महानगर है 
यहाँ भीतर का कोई
जैसे कोंक्रिट में चुनवाया सा होता है
और साँसे गरम धुएँ सी
बेतहाशा भागती ये दुनिया
अकेला नहीं होने देती
ऐसा ख़्वाब आता है..
अब मुझ में और इस महानगर में
बस दो उँगलियों का फ़ासला है
बस कोई इंसान छू न जाये

Monday, April 16, 2018

अगर मंदिर में रेप हो ही सकता है
और मस्जिदों में बंदूके चलाई जा सकती है
तो हमें ग़ौर फ़र्माने की ज़रूरत है
के क्या हमें सच में इन धर्मस्थलों की ज़रूरत है?

मसलन अयोध्या के ज़मीन का फ़साद
वहाँ महज़ रेप होना है या बंदूके चलानी है
इसी बात को उजागर करेगा
तो हमें सारी ही बातों पर ग़ौर फ़रमाने की ज़रूरत है!

और जहाँ  तक बात स्त्रियों पर होनेवाली ज़बरदस्ती 
योनि शुचिता और धार्मिक हिंसा की है
तो हमें पहले इस पर ग़ौर फ़र्माना चाहिए
के इंसान ने धर्म की रचना ही क्यूँ की थी !

और चार, दस , सौ पापियों को सज़ा देकर
उनके नाक,  कान, अंड़कोश तबाह कर
अगर इस विपदा से मुक्त हो ही सकते थे 
तो हज़ारों वर्षों की हमारी सभ्यतामें 
हम ये क्यूँ नहि कर पाए इस पर ग़ौर फ़र्माना ज़रूरी है !

और इन सारी ख़बरों को
 देखने , सुनने , महसूस करने और जीने के बावजूद,
अपने देश,  धर्म, राष्ट्र पर गर्व ही करना है
और ख़िलाफ़त की हर आवाज़ की दबाना ही है
तो पहले, अपने आप पर ग़ौर फ़र्माना ज़रूरी है।

ज़रूरी है, बहोत ज़रूरी है, इस समय
अपने आप को सारी तहों के नीचे से खोद कर देखना
ये जो झिल्लीयाँ चढ़ाई है सभ्यता की
उनको खुरचकर ‘आदमी’ नाम के 
‘जानवर’ पर ग़ौर फ़र्माना ज़रूरी है!!!

©️Rasika 




Wednesday, March 7, 2018

स्त्रियोंकी बिस्तर की कहानी

कितने स्त्रियोंकी बिस्तर की कहानी
कुछ अनकही
कुछ उनकी ज़ुबानी
बिस्तर वही मैला कुचेला
गुलाब की पंखुड़ियों से सना
कभी सूखा कभी गिला
कभी आवेश कभी दुर्बलता
कभी साँसे रूकती
कभी पलकों का टकराना
तू मेरा राजा मैं तेरी रानी
अब ये बिस्तर ही हमारी जिंदगानी
वही तड़पन गंगा वही उर्वशी
वही चंदाकी वही बीबी आएशा की
मेरी तृप्ति का साधन नहीं बन सकते तुम
कामकुंडलाकी भविष्यवाणी
लोककथाओका पार पाती
अंदर उमड़ता ज्वार 
सिर्फ़ पुरुषोंके नहीं
स्त्रियायों के अंदर भी आता है
और पूरा ना कर पाए कोई
तो स्त्री भटकती है दूसरे द्वारों पर डरी हुई सहमी हुई
हर बार अपराधी होती
यही सीख है यही लोक राग 
किसी एक की हो तुम
I am woman of good sex appetite 
 कैसे कहेगी ये किसिसे
सस्ते लगने का डर
सबसे बड़ा डर होता है
और चाहे गंगा सिंधु हो
या बीबी आएशा या आज की कोई सैंड्रा
डर सबको लगता है
और सिर्फ़ हलक ही क्या पूरा शरीर सूखता है
ये कहानी सिर्फ़ बिस्तर की कहानी नहीं रहती!
भावनाओंसे छेड़खानी
कुछ अहम कुछ वादे
कुछ क़समें कुछ नाते
सब दाव पर लग जाते है
औरत बिस्तर की की कहानी का अंत देख लेती है
कहानी बदल देती है
अब कहानी सिर्फ़ सूखने की है
अब पता चला
महिलाओं की कहानी में इतना अकेलापन कहाँसे आता है।

रसिका आगाशे

Friday, February 23, 2018

जब इतना अकेलापन हो
के दुकान लगाकर
बाज़ार में बेचा जा सके
तो उसकी क़ीमत क्या होगी

जब सब उलझे है आपसमें
मोबाइल और तमाम ऐप्स के ज़रिए 
और तब भी रात भर बस 
किसी का हाथ पकड़े रखने का ख़याल 
रूमानी नहीं बेवक़ूफ़ाना लगे
और एक खुली अर्थव्यवस्था के बावजूद
जब पाबंदियों की बाढ़ आये
और अकेलापन हवा मे झूलता सा 
किसी फंदे की तरह जकड़ ले आपको
क्या तब भी हम एकदूसरे से 
हालचाल पूछकर आगे बढ सकते हैं

यहाँ सब हर तरफ़ हर कूचे 
और गली के छोर पर 
जो अकेले लोगों के जत्थे के जत्थे खड़े हैं
जो घर, परिवार, संगी , साथी 
इन सबके बावजूद
इस अकेलेपन की दुकानमें
 अपनी अपनी आत्मा सजा सकते हैं
किसी समान की तरह
क्या वो जानते है
की जो वो बेचना चाहते है 
वही उनका आख़री जुड़ाव है
जीने से!


Saturday, February 3, 2018

कैसे करें अब बात ..
मैं दही हांडी पर ट्रैफ़िक क्यूँ है पूछती हूँ
तुम जुम्मे की नमाज़ की तरफ़ इशारा करते हो 
मैं उना की बात करती हूँ
तुम गाय की महानता गाते हो
मैं स्कूल बस पर हमले की बात करती हूँ
तुम कश्मीर उठाए चले आते हो 
मैं कभी अपने हक़ की बात करूँ
तो तुम सैनिकों की शहादत बीच में ले आते हो 
मैं अपना फटा चिथड़ा दिखाती हूँ
तुम पाकिस्तान के परचम पर दाग़ दिखाते हो!
मैं पूछती हूँ के क्या हमारे पास जीने के लिए बेहतर उदाहरण नही?
तो तुम मुझे कभी लाल, कभी नीला, कभी हरा क़रार देते हो 
मैं तुम्हारा क्या करूँ
मैं बहस करना चाहती हूँ
जब तुम फ़साद पर आमादा हो!
मैं तुम्हारे साथ जीना चाहती हूँ
पर ( क्यूँ की मैं महिला हूँ), 
तुम मुझे बाज़ारू घोषित करते हो!
कैसे करें अब बात

 और जब तुम बात सुनने को तय्यार ही नहीं
तो कैसे समझाऊँ तुम्हें
के मुझे जुम्मे के दिन भी ट्रैफ़िक से परेशानी होती है
और उसी दिन क्यूँ, उन सारे दिन 
जब लोग अपना अपना  मज़हब
 अपने गले में लपेटे 
सड़क पर उतरते हैं
और एक धार्मिक उन्माद में 
बाक़ी दुनिया को भूल जाते हैं!

मुझे कश्मीरी के लोगों की उतनी ही फ़िक्र है
जितना की मुज़फ़्फ़रनगर की, या ग़ाज़ा की
या बर्मा की या कराची की भी
मुझे लोगों की फ़िक्र होती है,y
उनके शहरों केउनके नाम से 
इस चिंता में कोई फ़र्क़ नहि पड़ता!

कैसे समझाऊँ तुम्हें के 
सैनिकों की शहादत से मेरी आँखें भी 
नम हो जाती है कई बार
पर उससे ज़्यादा ये ख़याल रुलाता है
के हमें सरहदें बनानी पड़ी!

वैसे तुम्हारे अंदर इतना ग़ुस्सा है,
तुम अंदर से खौल रहे है,
इसका अंदाज़ा भी नही था मुझे,
जब तक ये मुआ फ़ेस्बुक नही आया था!
तुम मेरे बग़ल में ही तो बैठते थे तब तक
कभी अंदाज़ा भी नहीं हुआ ,
के इतनी नफ़रत का पेड़ है अंदर.
और  जब ऐसे सारे पेड़ों से घिरी हुई हूँ मैं
और मुझ तक कोई तिनका पोहोंच नही पता
रोशनी का
इस अंधेरे  ओरछोर समझ नही आता,
मैं तुमसे बात करना चाहती हूँ,
और तुम मुझे देशद्रोही क़रार दे चुके हो
अब कैसे करें बात






Monday, January 29, 2018

तुम मेरी कविताओं में 
मुझे ढूँढने की कोशिश मत करना
ना मेरी गली में इस देश को ..
अब मेरे साये के भी छिलके बचे हैं
और मेरा सूनापन क़तई रूमानी नहीं।
वो उतना ही सच्चा है,
जितनी ये दुनिया और अँधियारा
मेरे गले में और गली में है रोशनी,
निऑन साइन की जगमगाहट काम हो..
तो झाँक लो..
मेरी गली में, और कविता में 

Wednesday, January 24, 2018

जेंव्हा इमारती समोर उभ्या असतात
आ वासून तुम्हाला गिळंकृत  करण्यसाठी,
आणि तुम्हाला जाणवत  असतो ,
गुदमरणारा  श्वास  !
छोट्याशा  खिडकीतून  वाकून  बघणारे  
चड्डी  बनियान  आणि  ब्रा,
सांगत असतात  तीच  ती  गोष्ट , 
महानगराच्या  खुजेपणाची !
आणि  तुमच्या  बाल्कनी मधली 
तजेलदार  बोगनवेल  देत  असते,  
साक्ष  तुमच्या  सुखवस्तूपणाची .
पण  रोज  रोज  कॉफी  प्यायला 
बाल्कनीत  बसायला  वेळ उरलेला  नसतो.  
आणि  खरंतर  समोरच्या  
Sra च्या  बिल्डिंग  मधून 
वाकुल्या  दाखवणारे 
चड्डी  बनियान  आणि  ब्रा, 
न पुसून  टाकता  येणारा भूतकाळ,  
तुमच्या  मेकअपचं  कोरीव  काम  केलेल्या 
आणि  परफ्युमनी  न्हायलेल्या ,
नितळ  त्वचेला  देत  असतो  तडे  !

चड्डी  बनियान  आणि  ब्रा 
या  खासगी मालमत्तेचं 
प्रदर्शन  लावल्या  बद्दल 
‘त्यांच्यावर’  गुन्हा  दाखल  करता  येणार  नाही !
मग  शोधुयात  कारणं, 
लवकर  आणि  तत्परतेने 
‘त्यांना’  इथून  हद्दपार  करण्याची.  
गावाच्या  वेशीबाहेर  राहायची ज्यांची  लायकी  
ते  कसे  उगवलेत,  
पिंपळासारखे  आपल्याच 
सैनिटेरी  पाईप  च्या  आडोशाने 
त्याचा  घेऊ  या  शोध !
मग  घेऊ  बाल्कनीत 
कॉफी  .. 
समाजातल्या  अंतहीन  
दुही  बद्दल  चर्चा  करत