Friday, August 25, 2017


चल तर..

चल, तुला मनाच्या अशा प्रदेशात घेऊन जाते
जिथे चकव्याला रानभूल म्हणतात !
तुझ्या शारीर मोहोराचे दरवळ
अजून ताजे आहेत माझ्या मानेवर  !

चल, माझ्याबरोबर अशा आकाशात
जिथे उडण्यासाठी पंखांची घाई नाही रे !
तुझ्या बोटावर माझ्या नखांची नक्षी
क्षितिजभर वावटळ उठवत राहील !

चल माझ्या बरोबर गाढ संवेदनेच्या
त्या अवकाशात , जिथे प्रकाशाची विवरे आहेत
तुझ्या नजरेचा फास  पडलाय आत्म्याभोवती
आणि दुखावून सुखावणारा भोवरा तुझ्या तळहातावर..
तू फक्त चल..



Sunday, August 13, 2017

बच्चे...

अंदर की बेचैनी अब 
और कितने टुकड़े करेगी 
ये समझ नही आता 
बस दर्द होता है 


ये  नन्हें पौधौं को आग लगाकर
जो धुआँ जमा होता है,
तेरे मेरे अंतरिक्ष में !
उसे निगल कर क्या, 
ऑक्सिजन की एक बूँद
 पैदा कर पाएँगे हम!
हम हो चुके हैं, मौन
दिल ऐसे सड़ गए है,
के यक़ीन नही होता
कभी इंसान के रहे होंगे
और ज़ुबान ज़हरीली..
आओ अब कुछ बच्चों की 
मौत पर सोग मानते हैं 

और अपने बचे टुकड़े 
थाल में सजा ले!
ताकि किसी को शक ना हो 
के हमें दर्द हुआ था




Thursday, August 10, 2017

कनुप्रिया को याद करते हुए...

मैं वही कविता हूँ , 
जो अटक गयी है
तुम्हारी, सासों में, हड्डियों में, मेरे सखा 

जब भींच लिया था 
तुमने मुझे कसकर ,
कुछ निशान मेरे आत्मा पर पड़े थे तुम्हारे

जैसे ही कहूँगी तुम्हें साँवरे 
मेरे शब्द भक्ति रस में डूब जाएँगे
कविता की आरती ना  हो जाएगी !

तुम कभी ना थे भगवान 
ना मेरे लिए.. ना उस रात के लिए
जब मेरे बदन पर लिखी थी तुमने ये कविता

ये कैसा शब्दों का तानाबाना,
जब जानती हूँ के तुम मेरे  नहि
ना मैं ही हूँ तुम्हारी

मोह के इस धागे का
रंग श्याम है या नीला 
जिसे बुनते, तुमने पुकारा था मुझे, सखी!


किसी बंधन के बिना
जो बाँध ले बाहों में 
क्या उसिको कहते हैं, साँवरे !

तो चलो, अब उसी वृक्ष के नीचे
जहाँ कभी वंशी के गूँजे थे सुर
दोनो को हथेलियों की रेखा,
 देखते है जोड़कर..
क्या आधा चाँद बना लेंगे.. 
हमारे हिस्से में उतना ही दान है
मेरे सखा..