कनुप्रिया को याद करते हुए...
जो अटक गयी है
तुम्हारी, सासों में, हड्डियों में, मेरे सखा
जब भींच लिया था
तुमने मुझे कसकर ,
कुछ निशान मेरे आत्मा पर पड़े थे तुम्हारे
जैसे ही कहूँगी तुम्हें साँवरे
मेरे शब्द भक्ति रस में डूब जाएँगे
कविता की आरती ना हो जाएगी !
तुम कभी ना थे भगवान
ना मेरे लिए.. ना उस रात के लिए
जब मेरे बदन पर लिखी थी तुमने ये कविता
ये कैसा शब्दों का तानाबाना,
जब जानती हूँ के तुम मेरे नहि
ना मैं ही हूँ तुम्हारी
मोह के इस धागे का
रंग श्याम है या नीला
जिसे बुनते, तुमने पुकारा था मुझे, सखी!
किसी बंधन के बिना
जो बाँध ले बाहों में
क्या उसिको कहते हैं, साँवरे !
तो चलो, अब उसी वृक्ष के नीचे
जहाँ कभी वंशी के गूँजे थे सुर
दोनो को हथेलियों की रेखा,
देखते है जोड़कर..
क्या आधा चाँद बना लेंगे..
हमारे हिस्से में उतना ही दान है
मेरे सखा..
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