Sunday, December 3, 2017

लोग ..जो जीने के लिए करते हैं सफ़र
छोड़ कुछ बर्तन भांडे ..
और कुछ ख़ाली जगह
कुछ धूनें ,पुरानी बस्तियों जितनी
ख़ाली हाथ , कुछ अरमान
..कहीं अपना घोसला बनाने के
चल पड़ते हैं ,यूँ ही जैसे 
चलने के अलावा ना कोई चारा हो
ना कोई वजह जीने की...
चलते रहने के अलावा
और पोहोंचते है .. महानगर में ..
जो मुँह खोले बैठा है..

सुकून

गर अचानक सारी भीड़भाड़ को छोड़
दुनिया के किसी कोने में खेती करने लगूँगी
तो क्या सुकून पा लूँगी!
इसमें एक बात तो मान कर चलना होगा
के जिसे मैं खेती कहती हूँ, वो फ़ार्मिंग है!
नदी के किनारे वाली! ठंडी ठंडी हरी हरी
अब इस देश में ऐसी जमीं ख़रीदने के लिए
कितने किसानों को बेचना पड़ेगा?
और कितनों की ज़मीन NA करवानी होगी
और ऐसे जमीं पर जब मैं 
अपने किचन गार्डन के लिए 
चिलीज़ और टमेटो उगाऊँगी 
तो क्या मेरे सुकून में 
ख़ून की महक ना होगी?
या अब मेरा सुकून ...
महक और मिट्टी और ख़ून से 
बहोत दूर चला आया है

रोशनी

तुम मेरी कविताओं में 
मुझे ढूँढने की कोशिश मत करना
ना मेरी गली में इस देश को ..
अब मेरे साये के भी छिलके बचे हैं
और मेरा सूनापन क़तई रूमानी नहीं।
वो उतना ही सच्चा है,
जितनी ये दुनिया और अँधियारा
मेरे गले में और गली में है रोशनी,
निऑन साइन की जगमगाहट काम हो..
तो झाँक लो..
मेरी गली में, और कविता में 

Friday, August 25, 2017


चल तर..

चल, तुला मनाच्या अशा प्रदेशात घेऊन जाते
जिथे चकव्याला रानभूल म्हणतात !
तुझ्या शारीर मोहोराचे दरवळ
अजून ताजे आहेत माझ्या मानेवर  !

चल, माझ्याबरोबर अशा आकाशात
जिथे उडण्यासाठी पंखांची घाई नाही रे !
तुझ्या बोटावर माझ्या नखांची नक्षी
क्षितिजभर वावटळ उठवत राहील !

चल माझ्या बरोबर गाढ संवेदनेच्या
त्या अवकाशात , जिथे प्रकाशाची विवरे आहेत
तुझ्या नजरेचा फास  पडलाय आत्म्याभोवती
आणि दुखावून सुखावणारा भोवरा तुझ्या तळहातावर..
तू फक्त चल..



Sunday, August 13, 2017

बच्चे...

अंदर की बेचैनी अब 
और कितने टुकड़े करेगी 
ये समझ नही आता 
बस दर्द होता है 


ये  नन्हें पौधौं को आग लगाकर
जो धुआँ जमा होता है,
तेरे मेरे अंतरिक्ष में !
उसे निगल कर क्या, 
ऑक्सिजन की एक बूँद
 पैदा कर पाएँगे हम!
हम हो चुके हैं, मौन
दिल ऐसे सड़ गए है,
के यक़ीन नही होता
कभी इंसान के रहे होंगे
और ज़ुबान ज़हरीली..
आओ अब कुछ बच्चों की 
मौत पर सोग मानते हैं 

और अपने बचे टुकड़े 
थाल में सजा ले!
ताकि किसी को शक ना हो 
के हमें दर्द हुआ था




Thursday, August 10, 2017

कनुप्रिया को याद करते हुए...

मैं वही कविता हूँ , 
जो अटक गयी है
तुम्हारी, सासों में, हड्डियों में, मेरे सखा 

जब भींच लिया था 
तुमने मुझे कसकर ,
कुछ निशान मेरे आत्मा पर पड़े थे तुम्हारे

जैसे ही कहूँगी तुम्हें साँवरे 
मेरे शब्द भक्ति रस में डूब जाएँगे
कविता की आरती ना  हो जाएगी !

तुम कभी ना थे भगवान 
ना मेरे लिए.. ना उस रात के लिए
जब मेरे बदन पर लिखी थी तुमने ये कविता

ये कैसा शब्दों का तानाबाना,
जब जानती हूँ के तुम मेरे  नहि
ना मैं ही हूँ तुम्हारी

मोह के इस धागे का
रंग श्याम है या नीला 
जिसे बुनते, तुमने पुकारा था मुझे, सखी!


किसी बंधन के बिना
जो बाँध ले बाहों में 
क्या उसिको कहते हैं, साँवरे !

तो चलो, अब उसी वृक्ष के नीचे
जहाँ कभी वंशी के गूँजे थे सुर
दोनो को हथेलियों की रेखा,
 देखते है जोड़कर..
क्या आधा चाँद बना लेंगे.. 
हमारे हिस्से में उतना ही दान है
मेरे सखा.. 



Sunday, July 2, 2017


क्रांति के इंतज़ार में...


जीवन में क्रांति की बड़ी कमी हो गयी है
सभी रोते ,सभी दुखी,सभी लाचार इंसानो को 
एक क़तारमें देख कर भी 
हम बस अपने आशियाने और नए tv और फ़्रिज की भ्रांति में घूम रहे हैं!
कहाँसे आएगी क्रान्ती?
बस अब घूमते है चे के टीशर्ट पहनकर
और कभी बालों का स्टाइल बदलकर
अब बताएँगे के हमारे ज़माने में क्या दौर था क्रान्ति का
अब तुम फँसें हो अपने मोबाइल में
तो कहाँ से आएगी क्रान्ति
और फिर यही पंक्तियाँ 
प्रिंट करवा लोगे मग पर 
और लेते रहोगे चुस्कियाँ शान्तिकी
और भूल जाओगे के क्रान्ति जवानी से नहि 
जोश से आनी थी,होश में पानी थी 
जोश तुमने हम में डाला ही नही 
अपनी मध्यमवर्गीय घुट्टी में मिलाकर!
और होश अब कबके उड़ गए 
तो अब कहाँसे आएगी क्रान्ति!
©raskin 
on  women's day 


आज के दिन 
घोषित करना चाहती हूँ
आदिशक्ति नहीं हूँ मैं

ना वो ख़ूबसूरत औरत
जो बस मर्दों की नज़र से 
होती है ख़ूबसूरत 

ना मैं वो हूँ
जिसे तुमने शॉपिंग 
'गुलाबी 'दुनिया में क़ैद किया है!

माँ, बहन, बीवी ,बेटी 
इसके अलावा होता है अस्तित्व
जो शायद तुम भूल गये हो

आज के दिन 
जब तुम देते मुबारकबाद  
क्यूँ की मैंने सहें हैं दुःख!
क्यूँ ना काट  कर देते वो दुःख की जड़
जिसपर तुम बैठे मुझे ताक रहे हो

दुनिया की सारी औरतें
शायद यही कहना चाहती हैं
दुनियाँ के तमाम मर्दों से,

हमें सुकून की साँस लेने दो !!
©rasika agashe 


कुछ समझ बूझ के बिना
मैं चलती रही
तारोंकि राह
सुंदर कुछ नहीं होता
जीवन में 
जब तक उसमें आतंक ना हो
ये शब्द लिख कर
वो अपने सोते बच्चे को गोद 
 में लेकर चली गयी
© rasika agashe


कुछ ख़ाली कुछ लम्हे
कुछ बात टूटीसी
दो दरवाज़े
ना खुलनेवाले
कुछ सीढ़ी झुकीसी

कुछ शब्द थमे से
कुछ बाते बौराई
ठंडे आँगन में लिपटे
जिस्म थर्राये
कुछ वादे कर आयी

कुछ आवाज़ें कुछ पंक्तियाँ
कुछ धड़कन शर्माई
मेरी रुके साँस
तेरा बदन
और आँखें महक आयी
©rasika agashe 

Monday, April 10, 2017

मुझे कसके पकड़ लो

चन्द सिक्के जब चाँद जैसे नज़र आए
तो लगा अब तकना बंद करना चाहिए आसमान को
अब गरज , और बदली
का संगीत नहीं कोलाहल लगने लगा
तो बंद करनी चाहिए खिड़की
और जब तेरा प्यार करना 
महसूस करना छोड़
तुममें ढूँढने लगा फ़िल्मी परछाइयाँ
तो बंद कर लेना चाहिए 
अंदर का दरवाज़ा .. 
सब बंद कर कहाँ खड़ा होऊँगा
यथार्थ में 
या या किसी ऐसी जगह
जहाँ ख़ाली सिक्के, कोलाहल और परछाइयों की भी
बस छबि बची हो
...मुझे कस के पकड़ लो 

Friday, March 31, 2017

जाहील

ये जो दुनिया,जाहील होती जाती,
मनु की है या आदम की!
और मैं यहाँ intellectual बनी
किसे ढूँढ़ रही हूँ?
तुमने तो अपना सब बेच दिया!
ज़मीर की spelling क्या होती है?
और सपने का मतलब?
मैं कोई पता नहीं पूछ रही!
के झटक दोगे तुम.
ये जो लिखा जाएगा ना,
इतिहास मेरा तुम्हारा,
पढ़ेलिखे गवारों का Account statement ना लगे,
बस इतनी चिंता है!
बाक़ी मेरे पीछे pseudo
ये चिपकाकर गाली,
तुमने काम आसान किया है
सबका!
जो १०० साल बाद पढ़ेंगे कहानी
हमारे युग की,
इसको comedy मानेंगे
या मानवता पर लिखा satire
तय नहीं कर पा रही हूँ!
बाक़ी जहिलों का तमाशा 
देखने में शायद मज़ा ही आये
अगली पीढ़ी को!!

Saturday, March 4, 2017

कुछ गड़बड़ हो रही है 
रासायनिक, आणविक शस्त्रो की खुले आम बातचीत  
इलेक्शन की गरमागर्मी..
जब खोलो टीवी  सेट
वही बहस वही आतंक 
..पता नही मुझे नींद क्यूँ नही आती 

आज कुछ मारे गए
कल कुछ और
सारे एक जैसे दिखने वाले ..
और बचे हैं कुछ नारे
ख़ून में लिथड़े हुए!

मानवतावादी होना गाली है आज! 
और आधा अख़बार भर कर आता है,
 दुनिया भर कि राजनैतिक दुष्ट चित्रों के साथ
जो ना तेरे है, ना मेरे हैं 
और बचा आधा, फ़िल्मे, क्रिकेट, फ़ुट्बॉल, गाने,
 एक अलग रंगीन  चकाचक दुनिया
जो ना तेरी है, ना मेरी है 
..और नींद ना जाने कहाँ ग़ायब है 

सबकी समझ पर न जाने कैसी पट्टी बंधी है।
आवेश, अभिनिवेश हैं मुख्य कलाकार 
जो जितनी ज़ोर से चीखे
जितनी फूली हो नसे गले की
महान है!
चाहे 'बात' कुछ की ही ना हो!
किससे लड़े? किस किससे लड़े? 
कोई सुनने को तय्यार नहीं।

सब मना  रहे त्योहार
डाल  रहे वोट  
नाचते गाते रोड शोज़, सभाओं में 
इतने लोग जो आते  हैं, रंगोसे लदे 
क्या चैन की नींद सो रहे हैं!
सारे हत्यारे, नेता, बड़बोले 
बलात्कारी, अत्याचारी 
फ़ेसबूक, ट्विटर पर धमकियाँ देने वाले,
अगर सब चैन की नींद सो रहे हैं!
तो मुझे नींद क्यूँ नही आती ..
©rasika


Saturday, February 18, 2017

मैं समय की नोक पर चलनेवाली एक कलाकारीन  हूँ
कलाबाज़ी खाती
कभी चहकती
कभी अपना ख़ाली पेट दिखाती
ख़ाली पेट वो भी नंगा
साड़ी में ऐसी सुविधा होती है,
के नुमाइश भी हो सके और 
सिर ढकने की गुंजाइश भी हो!

मेरे आजके काम में सब कुछ शामिल है
सब कुछ जो सारी मानवजाति को आज के दिन में पूरा करना है 
बच्चे साफ़ करने से ले कर
सारे घर के मूँह में निवाला ठूसने तक,
और ट्रम्प और मोदी की रजनीतियों से गुज़र कर
अपनी कार में पेट्रोल डलाने तक,
और चाँद सितारों की रूमानी बातों से
प्रशाद की तशतरियाँ अलग रखने तक,
अपनी सास से अलगाव बनाने से,
मोहल्ले की लाड़ली बनने तक
बहुत काम है!
और हमेशा की तरह वक़्त बहुत कम!
ये सारा का सारा वक़्त हमेशा कम क्यूँ होता है
जब की मैं स्त्री हूँ
जबकि सारे संसार की बाग़डोर मेरे ही हाथों में थमायी है .
ऐसा माना है मैंने ही!
क्या ख़ुशी से नाचतीं हूँ ,
जब सूपर वुमन का ख़िताब दिया जाता है मुझे,
जिसके बदले अपने अंतस से रोज़ थोड़ा दूर जाती  हूँ में!

मैं, जो समय की नोक पर चलती हूँ
सारा समय इसी चेष्टा में लगी रहती हूँ
के कुछ कर दूँ
 सुकून के लिए
परिवारके समाज के 
सुकून से एक प्याली चाय पीना भूल जाती हूँ कई बार
और ये कहानी कितनियों ने सुनाई
मुझसे भी पहले
पता नहीं क्यूँ 
फिर भी 
मैं समय की नोक पर चलती हूँ।
©RasikaAgashe

Monday, February 6, 2017

कुछ ख़ाली.. कुछ लम्हे 

कुछ ख़ाली ..कुछ लम्हे
कुछ बात ..टूटीसी
दो दरवाज़े
ना खुलनेवाले
कुछ सीढ़ी झुकी सी 

कुछ शब्द.. थमे से
कुछ बाते ..बौराई
ठंडे आँगन में लिपटे
जिस्म थर्राये
कुछ वादे मैं, कर आयी 

कुछ आवाज़ें ...कुछ पंक्तियाँ
कुछ धड़कन ...शर्माई
मेरी रुके साँस
तेरा बदन
और आँखें महक आयी! 
©®rasika 

Thursday, January 19, 2017

रुक जा.. थोड़ी थम जा
हवा को साँस तो लेने दे पगली!
के दम ना घुट जाए,
इस सपनों की बारिश में.
कुछ पल ऐसे भी
जब पल रुक जाए
जब हाथ से हाथ ना छूटे
जब पहेली ना बुझे
दूजी पहली से,
जब ठहर जाए ये
सारी कायनात,
जब ज़ुबान पर जूनून हो,
सच ना उतरे...

थोड़ी तो रुक जा
अभी तो घटा ने
कुछ कहा ही नहीं
अभी तो तेरे दिल ने
कुछ सुना ही नहीं!
ये आवाज़ें जो आती है,
जो जाती है
दिल के आरपार,
तेरे पलकों  ने
इन्हें छुआ ही नहीं.
तुझे बड़ी जल्दी पड़ी है!
कुछ तय करने करने की.
अभी तो साये ने
अपनी कोख ढूँढी ही नहीं

रुक जा, थोड़ी थम जा
यह सारा घूँट बेचैनी का
ऐसे पी मत जा पगली,
अभी तो हवा ने साँस ली ही नहीं!
©rasika agashe
एक सपने की आख़िर

एक सपना भोला भाला सा
छैल छबीला
नाचता गाता
कभी फुदकता
कभी अकड़ता

नयी राह
पुरानी गालियाँ
रूखे मकान
मचलती कलियाँ
कुछ वादे
कुछ कमियाँ
हरे पत्ते की
लहराती डलिया

सपने की नाव
हवा में उड़ती
कभी बिफ़रती
कभी संभलती
कभी पंखों में
घुसी रहतीं

सपना टूटा
जैसे पत्ता
लहराता झूमता
ज़मीन पे उतरा
यही तो रखा था
संजोग कर सपने को
फिर उड़ चला
किस दिशा में

सपने देखे जाते हैं
आदिम काल से
टूटने के लिए...

जो पुरा हुआ
वो सच
जो अधूरा रहा
वही तो सपना

©rasika agashe