Saturday, May 30, 2015

जगणदारीत जगणं आपलं , जगणदारीत मरण रे
तुह्या माह्या जगण्याचं
उकिरड्यातच सडनं रे

उकिरडा उकिरडा म्हणू नये तो आपला रे
खोल खोल साच्यामंदी कोण घुमून राहिले रे
आज नुसती हसून पाहते राजा
आडणीशा तुह्याकडं
तुह्या खांद्या वर माही
शिडी कदी रोवली रे

मला वाटलं..म्या उठून बाहेर आले
सोच्छ झाले, न्ह्याले, धुयले
सुधारून गेले रे
माह्या श्वासा श्वासा साठी
कुणी प्राण दिले रे

एका वर एक चवड रचून
कुणी खांदे दिले रे
इतक्या या घाणी मंदी
कुणी पाय रोवले रे
माझी पोरगी शिकून सावरून
हापिसात गेली रे
तिच्या पायाखाली दगड
कित्ते जन चेन्द्ले रे


इत्ते सारे म्हणूनही
घान आतली संपत न्हायी
कित्ती आभाळ टेकले तरी माती
काही सुटत न्हायी
आता ही माही भाषा न्हवं
न्हायी ही बोली रे
जगनदारीत जिता जिता
नवी मी झाली रे
नवी मी झाली रे
©Rasika agashe

Wednesday, May 6, 2015

इंसानी मौत के सस्ते होने में हम सब का हाथ है
शोर...तेज़....मीडिया
तेज़ चलती गाड़ियां
..कुछ शराबी कुछ कुछ बेहोश
कुछ होशवाले खो बैठे हैं होश
आया है बस मौत को जोश
...इस में हम सब का हाथ है

हम नहीं लड़े किसी के लिए
न उठाई आवाज़
घर पर बैठे देखे तमाशे,
मौत का भी तमाशा हो गया आज
अब मत पुचकारो
...इस में हम सब का हाथ है..

हम नहीं थे पहिये के पीछे
न हम मौजूद अदालत में
टीवी स्क्रीन पर चिल्लाने वाले भी हम न थे
हम तो मौन थे..मौन है
जब लोग रस्ते पे ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर...
हम सोशल मीडिया पर कोरी कविता लिख सकते हैं..
हम सब के हाथ लाल हैं..
मौत के सस्ते होने में हम सबका हाथ है..