Thursday, August 13, 2015


चाँद का महकता टुकड़ा चोच में रख कर
वो बड़ी दूर से आया था
किसी दरवेश ने उसे बताया था 
के है सात समंदर पर
एक खुला आसमान
जहाँ चमकेगा 
ये चाँद का महकता टुकड़ा 
सुने आकाश की सुनी कोख में रख कर टुकड़ा
वो करता रहा  इंतज़ार
के अब और अब आएगी लौ
और रोशनी से भर जायेगा जहाँ...
सदियाँ बीती
पर अँधेरा कम न हुआ
बस कुछ कोपले फूटी है
महकते चाँद के टुकड़े को
अँधेरे में ही
वो वैसा ही बैठा है 
सुनी कोख लिए..
कौन बताये उसे के
चाँद को करने रोशन
खुद सूरज बन जलना होगा..
महकते अँधेरे
तेरे मेरे ज़िन्दगी के तो कायम है ही...

©Rasika 

Saturday, May 30, 2015

जगणदारीत जगणं आपलं , जगणदारीत मरण रे
तुह्या माह्या जगण्याचं
उकिरड्यातच सडनं रे

उकिरडा उकिरडा म्हणू नये तो आपला रे
खोल खोल साच्यामंदी कोण घुमून राहिले रे
आज नुसती हसून पाहते राजा
आडणीशा तुह्याकडं
तुह्या खांद्या वर माही
शिडी कदी रोवली रे

मला वाटलं..म्या उठून बाहेर आले
सोच्छ झाले, न्ह्याले, धुयले
सुधारून गेले रे
माह्या श्वासा श्वासा साठी
कुणी प्राण दिले रे

एका वर एक चवड रचून
कुणी खांदे दिले रे
इतक्या या घाणी मंदी
कुणी पाय रोवले रे
माझी पोरगी शिकून सावरून
हापिसात गेली रे
तिच्या पायाखाली दगड
कित्ते जन चेन्द्ले रे


इत्ते सारे म्हणूनही
घान आतली संपत न्हायी
कित्ती आभाळ टेकले तरी माती
काही सुटत न्हायी
आता ही माही भाषा न्हवं
न्हायी ही बोली रे
जगनदारीत जिता जिता
नवी मी झाली रे
नवी मी झाली रे
©Rasika agashe

Wednesday, May 6, 2015

इंसानी मौत के सस्ते होने में हम सब का हाथ है
शोर...तेज़....मीडिया
तेज़ चलती गाड़ियां
..कुछ शराबी कुछ कुछ बेहोश
कुछ होशवाले खो बैठे हैं होश
आया है बस मौत को जोश
...इस में हम सब का हाथ है

हम नहीं लड़े किसी के लिए
न उठाई आवाज़
घर पर बैठे देखे तमाशे,
मौत का भी तमाशा हो गया आज
अब मत पुचकारो
...इस में हम सब का हाथ है..

हम नहीं थे पहिये के पीछे
न हम मौजूद अदालत में
टीवी स्क्रीन पर चिल्लाने वाले भी हम न थे
हम तो मौन थे..मौन है
जब लोग रस्ते पे ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर...
हम सोशल मीडिया पर कोरी कविता लिख सकते हैं..
हम सब के हाथ लाल हैं..
मौत के सस्ते होने में हम सबका हाथ है..

Friday, February 20, 2015

Lal salam...on a black day

आज शस्त्र उनके हाथ में हैं...
जो छोटी छोटी बातों पर बिदका करते थे,
जो अपनी खामियों को मानते थे महानता
जो डर जाते थे बात बात पर,
के नष्ट न हो जाये उनकी सदियों पुरानी दास्ताँ!
संस्कृति उनकी रही हमेशा नरभक्षकों की.
इससे नहीं पड़ता फर्क ,
के वस्त्र थे उनके हरे या गेरुआ,
वो तो बस व्यस्त रहे, गिनने में छींटे लाल..
बस करते रहे खून, बहाते रहे खून,
डरपोक थे!
ये वहीं लोग हैं, जिनका अस्तित्व टिका हैं
किसी और के आसुओ पे, किसी और और के खून पे..
जो नहीं जानते बढ़ना आगे,
पीछे की तरफ़ ले जाते हैं इंसानियत की कहानी,
वापस उसी बर्बरता के युग में...जो डरपोक ही था.

आज उनके हाथ में शस्त्र हैं
जो डरपोक थे,
डरपोक थे , के सामने आने से डरते थे
डरते थे बदलाव से, जो उतनाही है निश्चित,
जितनी जिंदगी, हर धड़कन, हर पल में.
जो न समझ पाये अर्थ इंसानी संस्कृति का,
लगे रहे उसकी रक्षा में,
करते रहे हमला विचारों पर, बिना समझे बहाते रहे खून
के क़त्ल करके सारी कौम सोचनेवालोंकी,
सोच नहीं मरती!
पर क्या करें वो बुजदिल अनजान हैं...
और आज शस्त्र उनके हाथ में हैं.

©®rasika agashe

Wednesday, January 14, 2015

आपण आणि आपली तत्वं
याचं कुंपण घालून घेतलं न एकदा व्यवस्थित
की मग नाही वाटत एकटं
सरत जातात वर्षामागून वर्षे
टिकटिकत राहतो काटा...
आपल्याबरोबरीचे काही मागे पडतात, काही निघून जातात पुढे...
पण ते तसे असतातच की नेहमीच...
आपल्या आयुष्याच्या शर्यतीत आपण कायम मधोमध!
आपल्या आयुष्यातले आपणच तर असतो गणपती गुळाचे!
आपल्या आयुष्यात स्वतःच्या,
आपणच असतो की महत्वाचे,
की तत्वे आपली, 
चार भली चार बुरी,
यावरच तर ठरत की 
कुंपणात एकटे आहोत आपण
की कुंपणाची ही साथ आहे.