आज शस्त्र उनके हाथ में हैं...
जो छोटी छोटी बातों पर बिदका करते थे,
जो अपनी खामियों को मानते थे महानता
जो डर जाते थे बात बात पर,
के नष्ट न हो जाये उनकी सदियों पुरानी दास्ताँ!
संस्कृति उनकी रही हमेशा नरभक्षकों की.
इससे नहीं पड़ता फर्क ,
के वस्त्र थे उनके हरे या गेरुआ,
वो तो बस व्यस्त रहे, गिनने में छींटे लाल..
बस करते रहे खून, बहाते रहे खून,
डरपोक थे!
ये वहीं लोग हैं, जिनका अस्तित्व टिका हैं
किसी और के आसुओ पे, किसी और और के खून पे..
जो नहीं जानते बढ़ना आगे,
पीछे की तरफ़ ले जाते हैं इंसानियत की कहानी,
वापस उसी बर्बरता के युग में...जो डरपोक ही था.
आज उनके हाथ में शस्त्र हैं
जो डरपोक थे,
डरपोक थे , के सामने आने से डरते थे
डरते थे बदलाव से, जो उतनाही है निश्चित,
जितनी जिंदगी, हर धड़कन, हर पल में.
जो न समझ पाये अर्थ इंसानी संस्कृति का,
लगे रहे उसकी रक्षा में,
करते रहे हमला विचारों पर, बिना समझे बहाते रहे खून
के क़त्ल करके सारी कौम सोचनेवालोंकी,
सोच नहीं मरती!
पर क्या करें वो बुजदिल अनजान हैं...
और आज शस्त्र उनके हाथ में हैं.
©®rasika agashe
जो छोटी छोटी बातों पर बिदका करते थे,
जो अपनी खामियों को मानते थे महानता
जो डर जाते थे बात बात पर,
के नष्ट न हो जाये उनकी सदियों पुरानी दास्ताँ!
संस्कृति उनकी रही हमेशा नरभक्षकों की.
इससे नहीं पड़ता फर्क ,
के वस्त्र थे उनके हरे या गेरुआ,
वो तो बस व्यस्त रहे, गिनने में छींटे लाल..
बस करते रहे खून, बहाते रहे खून,
डरपोक थे!
ये वहीं लोग हैं, जिनका अस्तित्व टिका हैं
किसी और के आसुओ पे, किसी और और के खून पे..
जो नहीं जानते बढ़ना आगे,
पीछे की तरफ़ ले जाते हैं इंसानियत की कहानी,
वापस उसी बर्बरता के युग में...जो डरपोक ही था.
आज उनके हाथ में शस्त्र हैं
जो डरपोक थे,
डरपोक थे , के सामने आने से डरते थे
डरते थे बदलाव से, जो उतनाही है निश्चित,
जितनी जिंदगी, हर धड़कन, हर पल में.
जो न समझ पाये अर्थ इंसानी संस्कृति का,
लगे रहे उसकी रक्षा में,
करते रहे हमला विचारों पर, बिना समझे बहाते रहे खून
के क़त्ल करके सारी कौम सोचनेवालोंकी,
सोच नहीं मरती!
पर क्या करें वो बुजदिल अनजान हैं...
और आज शस्त्र उनके हाथ में हैं.
©®rasika agashe