Sunday, July 2, 2017


क्रांति के इंतज़ार में...


जीवन में क्रांति की बड़ी कमी हो गयी है
सभी रोते ,सभी दुखी,सभी लाचार इंसानो को 
एक क़तारमें देख कर भी 
हम बस अपने आशियाने और नए tv और फ़्रिज की भ्रांति में घूम रहे हैं!
कहाँसे आएगी क्रान्ती?
बस अब घूमते है चे के टीशर्ट पहनकर
और कभी बालों का स्टाइल बदलकर
अब बताएँगे के हमारे ज़माने में क्या दौर था क्रान्ति का
अब तुम फँसें हो अपने मोबाइल में
तो कहाँ से आएगी क्रान्ति
और फिर यही पंक्तियाँ 
प्रिंट करवा लोगे मग पर 
और लेते रहोगे चुस्कियाँ शान्तिकी
और भूल जाओगे के क्रान्ति जवानी से नहि 
जोश से आनी थी,होश में पानी थी 
जोश तुमने हम में डाला ही नही 
अपनी मध्यमवर्गीय घुट्टी में मिलाकर!
और होश अब कबके उड़ गए 
तो अब कहाँसे आएगी क्रान्ति!
©raskin 
on  women's day 


आज के दिन 
घोषित करना चाहती हूँ
आदिशक्ति नहीं हूँ मैं

ना वो ख़ूबसूरत औरत
जो बस मर्दों की नज़र से 
होती है ख़ूबसूरत 

ना मैं वो हूँ
जिसे तुमने शॉपिंग 
'गुलाबी 'दुनिया में क़ैद किया है!

माँ, बहन, बीवी ,बेटी 
इसके अलावा होता है अस्तित्व
जो शायद तुम भूल गये हो

आज के दिन 
जब तुम देते मुबारकबाद  
क्यूँ की मैंने सहें हैं दुःख!
क्यूँ ना काट  कर देते वो दुःख की जड़
जिसपर तुम बैठे मुझे ताक रहे हो

दुनिया की सारी औरतें
शायद यही कहना चाहती हैं
दुनियाँ के तमाम मर्दों से,

हमें सुकून की साँस लेने दो !!
©rasika agashe 


कुछ समझ बूझ के बिना
मैं चलती रही
तारोंकि राह
सुंदर कुछ नहीं होता
जीवन में 
जब तक उसमें आतंक ना हो
ये शब्द लिख कर
वो अपने सोते बच्चे को गोद 
 में लेकर चली गयी
© rasika agashe


कुछ ख़ाली कुछ लम्हे
कुछ बात टूटीसी
दो दरवाज़े
ना खुलनेवाले
कुछ सीढ़ी झुकीसी

कुछ शब्द थमे से
कुछ बाते बौराई
ठंडे आँगन में लिपटे
जिस्म थर्राये
कुछ वादे कर आयी

कुछ आवाज़ें कुछ पंक्तियाँ
कुछ धड़कन शर्माई
मेरी रुके साँस
तेरा बदन
और आँखें महक आयी
©rasika agashe