Friday, July 11, 2014

कैसी अजीब सी रातें आती हैं

कैसी अजीब सी रातें आती हैं
जब लगता है नया दिन आएगा ही नहीं!
नहीं होना ख़ुद का इस दुनिया में,
ये तो ख़याल ए आम है ज़िन्दगी में.
पर इस दुनिया की ही ज़िन्दगी नहीं होगी कल
ये सोचना ख़ौफ़नाक फिर भी जायज़ है
ये साल, और पिछले कई साल ऐसे बीते
जहाँ लोगों ने महीने दर महीने ज़िन्दगी काटी
और अब औरतें गाज़ा की, तय करतीं सफर
ज़िन्दगी शायद कुछ घंटो की मानकर
और हम खुशगवार, मना रहें है ग़म का ख़त्म होना
मन ही मन करते इंतज़ार, सब कुछ ख़त्म होने का
महंगाई, भ्रष्टाचार, हिंसाचार, आरोप-प्रत्यारोप,
किसी क़ौम के, राज्य के, राष्ट्र के नागरिक होने का,
इंतज़ार रात ख़त्म होने का
...कैसी अजीब सी रातें आती हैं
©raskin 

Sunday, July 6, 2014

सब ऐसा ही चलता रहा तो...
हम कहाँ जा पहुचेंगे!
हम जो अपने आप को कहलाते ही
लोग ! इन्सान! और न जाने क्या क्या
कहाँ निकल पडे है हम
वैसे कहाँ के लिये चल पड़े  है हम
रास्ता...और ये अनगिनत सितारे..
खोज रहे हैं बेतरतीब से
पता नही क्या!
पेडो कि पत्तीयाँ गिरती रहती हैं ,
असमय
असमय हि सबकुछ पानी के तांडव में
डूबता नजर आता है
असमय!
ये शब्द हमारे समयो का है बस
वर्ना.. गहारते काले बदल, टुटती पहाड़ियाँ,
छोटे छोटे बच्चों कि असमय मृत्यू
के बावजुद..क्या हमारा चलना जरी राहता
...और ये सब ऐसा हि चलता रहा तो
...हम कहीं पहुचेंगे भी!