गाय हमारी माता है
और हमको कुछ नहीं आता है
अरे बाल गीत था ये!
गाय को माता मान
इंसानो की हत्या कर ही सकते हैं
तो सच में हमको कुछ नहीं आता है!
अब तो गीत लिखने का मन नहीं होता
उपन्यास लिखने का भी नहीं
महाकाव्य तो क़तई नहीं
मिथकों के नायक को भगवान मान
हम सामने दिखते हुए
असली, माँस हड्डी के इंसान को जला सकते हैं
अगर एक समूह के तौर पर
हमारे सिर पे ख़ून सवार होता है
तो सच में हमको कुछ नहीं आता है
इतने साल के लोकतंत्र में
क्यूँ समझ नहीं पाते के
के धार्मिक उन्माद करवाया जा सकता है
के यहाँ नफ़रत बोयी जा सकती है
के यहाँ सोशल मीडिया ही नहीं
सब चीज़ों का अलगोरिदम तय किया जा सकता है!
के मेरे शब्द आप तक पोहोंचे ही नहीं
पर आपकी नफ़रत वहाँ तक ज़रूर पोहोंचे
जहाँ वो करेगी सटीक चोट
के यहाँ क्रिया से पहले प्रतिक्रिया हो ही सकती है!
क्यूँ अभी तक समझ नहीं पाते
के यहाँ जाती धर्म से वोट बैंक का नाता है,
और हम को कुछ नहीं आता है
ये समय अँधियारे का है
मुश्किल है , पथरीला है, डरावना है
हाँ उन्ही पत्थरोंकि बात कर रही हूँ
जिनसे पहलू खान को मारा गया था
उसी डर की बात कर रही हूँ
जो ,अपने जैसे दिखने वाले इंसान समूह में आकर
पूरी कि पुरी गाड़ी जला सकते हैं
जिसमें सुबोध बैठ था
तब लगता ही होगा!
हाँ ये समय हमारे डरने का है
और इसीलिए बात करने का है
यही वक़्त है ये बताने का
के हम मूर्खता में शामिल नहीं होंगे
क्यूँ के जो हमने बोया है
वही भविष्य में लौटकर आता है
क्या हम को
सच में कुछ नहीं आता है??