गर अचानक सारी भीड़भाड़ को छोड़
दुनिया के किसी कोने में खेती करने लगूँगी
तो क्या सुकून पा लूँगी!
इसमें एक बात तो मान कर चलना होगा
के जिसे मैं खेती कहती हूँ, वो फ़ार्मिंग है!
नदी के किनारे वाली! ठंडी ठंडी हरी हरी
अब इस देश में ऐसी जमीं ख़रीदने के लिए
कितने किसानों को बेचना पड़ेगा?
और कितनों की ज़मीन NA करवानी होगी
और ऐसे जमीं पर जब मैं
अपने किचन गार्डन के लिए
चिलीज़ और टमेटो उगाऊँगी
तो क्या मेरे सुकून में
ख़ून की महक ना होगी?
या अब मेरा सुकून ...
महक और मिट्टी और ख़ून से
बहोत दूर चला आया है
No comments:
Post a Comment