जब इतना अकेलापन हो
के दुकान लगाकर
बाज़ार में बेचा जा सके
तो उसकी क़ीमत क्या होगी
जब सब उलझे है आपसमें
मोबाइल और तमाम ऐप्स के ज़रिए
और तब भी रात भर बस
किसी का हाथ पकड़े रखने का ख़याल
रूमानी नहीं बेवक़ूफ़ाना लगे
और एक खुली अर्थव्यवस्था के बावजूद
जब पाबंदियों की बाढ़ आये
और अकेलापन हवा मे झूलता सा
किसी फंदे की तरह जकड़ ले आपको
क्या तब भी हम एकदूसरे से
हालचाल पूछकर आगे बढ सकते हैं
यहाँ सब हर तरफ़ हर कूचे
और गली के छोर पर
जो अकेले लोगों के जत्थे के जत्थे खड़े हैं
जो घर, परिवार, संगी , साथी
इन सबके बावजूद
इस अकेलेपन की दुकानमें
अपनी अपनी आत्मा सजा सकते हैं
किसी समान की तरह
क्या वो जानते है
की जो वो बेचना चाहते है
वही उनका आख़री जुड़ाव है
जीने से!
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