Saturday, November 9, 2019

एक चादर भीनी सी झिनी सी
मेरे दादी की , परदादी की , उसकी भी दादी की
बाक़ी कुछ नहीं,
बस यही विरासत थी
मेरी तुम्हारी.. हम सबकी ..
उसमें हसरतें थी, सुकून था
उसके अंदर के अंधेरे में भी
थी रोशनी की गरमाहट..
हल्की बसंती, हल्की हरी,
लाल काठ और नीले बुटे..
ऐसा ताना बाना था
ऐसा सब कुछ उलझा , पर ख़ूबसूरत ..
के कोई एक रेशा अलग करना मुश्किल !
तुमने छीन ली मुझसे वो चादर
और निकाल फेंक रहे हो
वो सब धागे अलग थलग
जो तुम्हारे पसंद के नहीं
जो एक रंग के नहीं
जो एक आकार के नहीं
जो थोड़े टेढ़े है, उनको तो काट दिया तुमने
और जो बस हैं अलग थोडेसे
वो बस सहमकर लरज रहे हैं..
और बस वो बेरंग चादर
तुम चाहते हो मैं ओढ़ लूँ वापस!
पर उसमें अब वो नरमी नहीं
उसमें अब दुलार नहीं ..
अब ये चादर हमारी नहीं
बस तुम्हारी है शायद ..
अब सुकून की नींद कहाँ!

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