Wednesday, August 19, 2020

Hum yakin karna cahahte hain

 हम यक़ीन करना चाहते हैं

के न्याय की देवी सोयी नहीं
के उसके सारे पुजारी वो पंडे नहीं हैं 
जो गंगा तट पर खिंच तानकर 
दक्षिणा लेते है जजमान से 
हम यक़ीन करना चाहते हैं
के न्याय की देवी 
किसी एक जजमान ने रखी हुई नहीं है 

हम यक़ीन करना चाहते हैं
के उसके आँख की पट्टी खुली नहीं है
के वो  झाँककर नहीं ले रही 
किसी एक का पक्ष 
हम यक़ीन करना चाहते हैं 
आँख खोले सो नहीं रहा मेरा देश 
के वो पट्टी जो बंधी है आँखो पर 
वो किसी रंग से मैली नहीं हुई है!

हम यक़ीन करना चाहते हैं के 
वो तराज़ू नहीं झुकेगा सत्ता की ओर 
के सत्ता के और से जितना भी डाला जाए वज़न
जनशक्ति से कम ही तोला जाएगा 
हम यक़ीन करना चाहते हैं 
के दो बिल्लियों के लड़ाई में
बंदर नहीं चट कर पाएगा  न्याय की रोटी !

हम यक़ीन करना चाहते हैं 
के लोकतंत्र का पहला स्तम्भ
नहीं है इतना कमज़ोर
के हमें बात नहीं करने देगा !
हम जो लोक तंत्र के हैं लोग 
हम यक़ीन करना चाहते हैं के 
हम खुलकर बोल सकते हैं!
जी हम यक़ीन करना चाहते हैं 

हमें यक़ीन है के 
लब आज़ाद रहेंगे हमारे
ये जो ज़ुबान है और जज़्बा खौलता हुआ 
उसे नहीं मिटा सकता दमन का ख़ौफ़ 
हमें यक़ीन है के आज जो देशद्रोही क़रार दिए जा रहे हैं
कल क्रांतिकारी कहलाएँगे 
जो सच बात रखते हैं वो सच्चे कहलाएँगे 
हमें यक़ीन है के इंसाफ़ के पुजारीयोंसे 
इंसाफ़  ताक़तवर होगा!
हमें यक़ीन है हमें बोलने दिया जाएगा!

Monday, December 23, 2019

घुसपैठिए कौन होते हैं?
आठ पैर वाले? बड़े सिर वाले?
इंसान तो नहीं होते हैं शायद!

क्यूँ जाते हैं वो अपने राज्य देश की सीमाओं से बाहर ?
बिहारी महाराष्ट्र में बाहर का है
यू पी  वाला दिल्ली में बाहर का
बाक़ी आंतर्रष्ट्रीय सीमा के तो सब बाहर ही हैं
पर क्यूँ छोड़ना चाहते हैं वो अपनी रिहायशी जगह?
अपना बचपन , अपना आँगन ?
अपनी यादें , अपना जीवन ?

याद रखिए 
ये वो नहीं है जो बड़े पैकेज के लिए अमेरिका चले गए हैं?
जो आपमें से कईयों के बच्चे हैं
जो हर साल दो साल में वापस आकर यादें संजोते हैं!

तो ये कौन होते हैं जो अपने देश वापस नहीं जा पाते!
वो कहीं नहीं जा पाते !
वो कभी यहीं के हो नहीं पाते 
क्यूँ के आप उन्हें कहीं के होने नहीं देते !
वो मूँह उठाकर नहीं सर झुकाकर आते हैं 
वो अपनी पसलियाँ अपने फटे कुर्ते में छुपाते हैं 
वो आपके घरों में सफ़ाई करते हैं,
नालियाँ साफ़ करते हैं
ईंट पत्थर जमा करते हैं, अपने ही कैदख़ानों के लिए ..
सिर्फ़ जीने के लिए आए थे यहाँ!

उनको भगाना चाहिए!
वो हमारे पैसों पर जी रहे हैं
ना भागे तो मारना चाहिए! 
वो हमारे संसाधन इस्तेमाल कर रहे हैं!
उनको कैंप्स में ठूँस के ज़हरीली गैस छोड़नी चाहिए 
वो हमारी न्यायव्यवस्था के लिए ख़तरा हैं!

सही है!
वो हमारे इतने पुराने नहीं है !
तो क्या हुआ हमारे बाप दादा  परदादा 
इस शहर , इस राज्, इस देश में 
कुछ साल, दशक,शतक पहले आए हैं!
ये घुसपैठिओं का देश है 
ये दुनिया ऐसे ही लोंगोसे बनी है 
जो जीने के लिए यहाँ से वहाँ चले गए!

आपने उनका आना देखा
उनकी ग़रीबी देखी
उनका अपनी ज़मीन पर आक्रमण देखा
कभी ये नहीं देखा के ये ज़मीन कभी अपनी नहीं थी!
हम सब घुसपैठिए हैं!
कभी तो मानोगे!
मैं हमेशा सोचती थी 
मुसलमान कैसे से होते हैं 
कहाँ रहते हैं?
गंदगी से भरे मोहल्ले,  कटे लटके जानवर 
दंगाई तस्वीरों में टोपी पहने जवान लौंडे 
पाकिस्तान जीतने पर फूटने वाले पटाखे 
मैंने उनको नहीं सुना था , उनके बारे में सुना था !

मैं हमेशा कहती थी 
मुसलमानों को इस देश में डरने की क्या ज़रूरत है 
किसी के नाम के आगे मोहोम्मद लगा होता है,
तो उसकी अलग जाँच थोड़ी होती है
किसी की दाढ़ी बढ़ी हुई है तो
रेल स्टेशन पर उसकी तफ़तीश थोड़े होती है 
अल्पसंख्याक होने का  डर !
मैंने इसे नहीं देखा था, इसके बारे में सुना था 

और वो भी दिन आया 
जब ब्याह कर एक मुसलमान के घर आयी 
मैं हमेशा के तरह फिर कुछ कह ही ना पायी 
के ये घर मेरे हिंदू घर जैसा ही था!
वही बेटों के लिए परेशान होती अम्मी थी
वहीं बहु बेटी का लाड़ प्यार था 
वही पढ़ाई की ज़िद थी
वही देश का नाम रोशन करने का ख़्वाब था
पर क्या ये देश मैंने इनका रहने दिया था 
क्यूँ के इतने साल से मैंने इनका साथ महसूस नहीं किया था
बस इनके बारे में सुना था!
 रसिका आगाशे

Tuesday, November 26, 2019

कुछ होता है ..कुछ नहीं होता
और इसी बीच बहोत कुछ हो जाता है

कुछ आरज़ुओं की गलियाँ
कुछ सन्नाटे के साएँ
साँस रुक भी जाए
तो भी बहोत कुछ हो जाता है

आसमान मुझ पे झुका सा
रात भीनी टपकती सी
बारिश यूँ रुक भी जाए
तो भी बहोत कुछ हो जाता है

कहीं टकराए ख़यालात
तो कहीं टकराए जिस्म हैं
ये बात ज़ुबा पर ना आए
तो भी बहोत कुछ हो जाता है..

©️Rasika Agashe 

Saturday, November 9, 2019

एक चादर भीनी सी झिनी सी
मेरे दादी की , परदादी की , उसकी भी दादी की
बाक़ी कुछ नहीं,
बस यही विरासत थी
मेरी तुम्हारी.. हम सबकी ..
उसमें हसरतें थी, सुकून था
उसके अंदर के अंधेरे में भी
थी रोशनी की गरमाहट..
हल्की बसंती, हल्की हरी,
लाल काठ और नीले बुटे..
ऐसा ताना बाना था
ऐसा सब कुछ उलझा , पर ख़ूबसूरत ..
के कोई एक रेशा अलग करना मुश्किल !
तुमने छीन ली मुझसे वो चादर
और निकाल फेंक रहे हो
वो सब धागे अलग थलग
जो तुम्हारे पसंद के नहीं
जो एक रंग के नहीं
जो एक आकार के नहीं
जो थोड़े टेढ़े है, उनको तो काट दिया तुमने
और जो बस हैं अलग थोडेसे
वो बस सहमकर लरज रहे हैं..
और बस वो बेरंग चादर
तुम चाहते हो मैं ओढ़ लूँ वापस!
पर उसमें अब वो नरमी नहीं
उसमें अब दुलार नहीं ..
अब ये चादर हमारी नहीं
बस तुम्हारी है शायद ..
अब सुकून की नींद कहाँ!
 ये जगह तेरी ..
ये जगह मेरी ...
ये साँसे मेरी
सारी हवा तेरी !
कुछ कहानियाँ मेरी 
किरदार सिर्फ़ तेरे !
आँखो के आगे का 
अंधियारा भी तेरा,
मेरे घुटते गले में 
आवाज़ भी तेरी ,
और सिर उठा के चलूँ
तो आसमाँ भी तेरा !
और तू कहता है 
क्या तेरा क्या मेरा!
हाँ भाई अब से
मेरा इतिहास भी तेरा !
मेरी कशिश तेरी,
मेरी तहज़ीब तेरी !
गंगा तो तेरी ही थी 
अब जमना भी तेरी ...
बस आँखो से टपकते आँसू मेरे
शर्म से झुकी गर्दन मेरी 
ढुलका हुआ लहू मेरा 
ना ये मज़हब नहीं है मेरा
ना तेरा धर्म है कहीं से मेरा ..
बस कुछ दबी कुचली 
पर  ख़्वाहिशें हैं  मेरी,
तेरी डरावनी रात के बाद
काश बस सवेरा हो मेरा!

रसिका 

Tuesday, August 27, 2019

उड़ान 

अनजान पलों के बीच क़ैद 
आज की ये रात 
मेरे हथेलिसे तो छूट गयी
तेरे हथेलियों पे काँच के  निशान 
गहरी चोट… 
हम तो बस पतंग उड़ा रहे थे
सपने का माँजा टूटा
तो ऐसे काट गया
के हाथ की रेखा 

लहू से भर गयी…